Saturday, February 2, 2013

अच्छा लगे या बुरा, कहना तो पड़ता ही है ....हाँ नहीं तो !

बस आ गए जी अब हम कैनेडा ...
ठण्ड तो बहुत है, लेकिन घर के अन्दर महसूस नहीं होती।
रांची में होते हुए एक-दो शादी में जाना पड़ा, बहुत अच्छा लगा लेकिन देख कर थोड़ी हैरानी हुई कि रीति-रस्म अब कुछ कम होने लगे हैं, पूछने पर पता चला कि अब कोई बूढ़-पुरनियां रहे ही नहीं जो बताते कि का-का कैसे होगा और हमलोग तो सीखे ही नहीं जो कर पाए। तो मतलब ई हुआ कि अब रीति-रिवाज, संस्कृति का बाजा  बजना शुरू हो गया है। हमारी पीढ़ी तो कम से कम बिगुल बजा रही है भारतीय संस्कृति की, लेकिन उसके बाद इसके लिए भी कोई ताल ठोकने वाला भी नहीं रहेगा। काहे से कि, हमारे बच्चे बस मोबाईल और टी वी विशेषशज्ञ बन कर रह गए हैं। बच्चे ही क्यूँ आप खुद को ही देख लीजिये या फिर अपने ही घर में देख लीजिये कितने हैं, जिनको घिउढारी, माटी कोड़ाई, खोईछा कैसे किया जाता ई आता है, अरे शादी, सोहर, छठी, मुजुट्ठी का गीत ही केतना लोगों को आता है ??? आज भी केतना लोग हैं हमरे ही जेनेरेशन में जिन्होंने अपने बच्चों का यज्ञोपवीत करवाया है ?? हर बात अब शोर्टकट में आ गया है। किसी के मरनी में भी गए थे पता चला चार दिन में सब निपटा दिया गया, पूछने पर वही समय की कमी का दुहाई दे दिया गया। समय का कमी का तुरही हर जगह बज रहा है, लेकिन यही समय और इतना ही समय हर किसी के पास है, फिर भी पांच वक्त का नमाज़ लोग पढ़ ही रहे हैं। हर रविवार लोग चर्च जा ही रहे हैं, सुबह उठ कर प्रार्थना करना, रात को सोने से पहले प्रार्थना करना, भोजन से पहले प्रार्थना करना, करने वाले कर ही रहे हैं। बस  समय की कमी सिर्फ हम ही लोगों को है । बाकी दुनिया इतने ही समय में सब कुछ कर रही है। सच्ची बात तो ये है कि हम हिन्दू एक नंबर के काहिल हैं। अपनी जिम्मेदारियों से बचने का तरीका निकालने में माहिर हैं हम। जितने भी पंडित जी हैं, सब के सब किसी भी अनुष्ठान का शोर्टकट पहले बता देते हैं, और सब उसे बेधड़क अपना लेते हैं, किसी भी तरह की ग्लानि के बिना। आँख बंद करके उस रास्ते पर चल पड़ते हैं, क्योंकि वो रास्ता किसी सो काल्ड पंडित ने बताया है, इसलिए वो गारंटी है कि सही होगा। हमारे कर्मफल अब सिर्फ पंडितों पर ही निर्भर करता है।

कभी सोचिये, कितने हैं जो ईमानदारी से अपने पूरे परिवार के साथ नियमपूर्वक पूजा पाठ करते हैं, कितने हैं जो अपने बच्चों को पूजा विधि बताते हैं ? कितने तो खुद ही नहीं जानते कि पूजा की विधि क्या है। कितनो के बच्चे सचमुच हमारी संस्कृति के बारे में जानते हैं ?? कितनो ने अपने बच्चों को मानस, गीता इत्यादि पढवाया है ?? कितने बच्चे हैं जो आज हमारी संस्कृति, हमारे रीति-रिवाज, हमारे अनुष्ठानों के बारे में जानते हैं और उनके बारे में बात कर सकते हैं???  क्या सचमुच हमने अपनी संस्कृति को आगे ले जाने के लिए काम किया है ?? क्या सचमुच हमारी आने वाली पीढ़ी इस योग्य है कि उसे भारतीयता का सही अर्थ मालूम है ?? क्या हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी सभ्यता-संस्कृति के बारे में जानती है ? आपको नहीं लगता हमारे बच्चे अपनी जड़ों से दूर हो चुके हैं ??

कहने वाले यही कहेंगे कि हम तो इन कर्म-कांडों में विश्वास नहीं करते, लेकिन यही तो हैं हमारी पहचान। अच्छा लगे या बुरा, कहना तो पड़ता ही है ....हाँ नहीं तो !

3 comments:

  1. सच कहा आपने, हम भी तो पूरा नहीं सीख पाये जो हमारे बाबा दादी को मालूम था..बच्चे कुछ जानना नहीं चाहते..हम कुछ थोपना भी नहीं चाहते।

    ReplyDelete
  2. बड़ा दु:ख होता है अपनी संस्‍कृति की अपनों की द़ृष्टि में अनदेखी होते हुए। परदादा-दादा-पिता-पु्त्र और बच्‍चों के बीच संस्‍कृति की डोर तन नहीं पाई। पश्‍चाताप। क्‍या इस आधुनिक मारीचिका से निकल पाएंगे हम लोग?

    ReplyDelete
  3. sahi kaha aapne lekin ek bat aur bhi hai aaj kee tez bhagti hui zindgi me pooja path ke liye time nikalna bahut mushkil hai aur ham nahi chahte ki hamaree aane vali peedhi dharm-karm ke naam par isme adhik uljhe .sanskriti bachane ke liye hamare man me yadi bhagwan ke prati shriddha hai aur doosron kee shayata kee pravarti to usse achchha kuchh nahi. .सार्थक प्रस्तुति बेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया . आप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?

    ReplyDelete