Thursday, March 1, 2012

नियति के ये सारे खेल...


कितने अज्ञात होते हैं,
नियति के ये खेल सारे...
स्वप्न में भी न देखा जो,
बस प्रत्यक्ष हो जाते हैं....
शीतल पवन के हलके झोंके ,
बवंडर से बन जाते हैं....
आयु की बिसात पर मोहरे,
इधर-उधर हो जाते हैं,
पलक झपकते, देखते-देखते, 
ज्ञात खेल,
बिगड़ जाते हैं...
आँख के आगे,
लक्ष्य के पत्ते,
फर्र ओझल हो जाते हैं...
सब थमने पर ,
कदम हमारे नयी राह को,
पाते है...
और अतीत के पाँव ,
दूर-दूर तक,
कहीं नज़र नहीं आते हैं....
उन्हें ढूँढने के औचित्य भी...
वहीँ कहीं खो जाते हैं....!!