Wednesday, January 27, 2010

प्रगति...





एक पुरानी कविता....


बहुत दूर से चली आ रही हूँ

ये सोच कर चल रही हूँ,

कि कभी न कभी,

घर आएगा

जी उछल जायेगा,

मन मुस्काएगा,

थके तन और मन,

दोनों को मिलेगी एक थाह,

सुस्ताने की अब प्रबल हो गयी है चाह,

पर घर है कि आता ही नहीं है,

बोझ थकन का मन से जाता ही नहीं है,

बिना रुके लगातार, 

निरंतर....

हम चलते ही रहते हैं,

घर, कभी नहीं आता,

शायद  'प्रगति'  इसे ही कहते हैं




30 comments:

  1. अदा जी,
    आज आपकी दो प्रविष्ठी पढ़ ली
    समय का आभाव है इनदिनों, लेकिन पढूंगा ज़रूर
    यह कविता जीवन की सच्चाई का बखूबी उकेर गयी है
    बहुत बड़ा सत्य बता रही है आपकी कविता
    साधुवाद !!

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  2. सच कहा अदाजी आपने, अपनी अदा में की "प्रगति" एक निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है अतएव प्रगतिशील मनुष्य कभी रुक नहीं सकता !!
    सुन्दर वर्णन

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  3. मैं जहाँ चलूँ ...मेरा घर मेरा वतन साथ चलता है ....जिस तक पहुँचते मेरे पाँव थके ....वह तो सिर्फ मकां ही होगा ...

    .और कई बार यूँ भी चलना अच्छा लगता है ...मंजिल से अनजान रास्तो से गुजरना ...
    उनकी यादो के जमघट के साथ ...कहाँ रही थकन ....कहाँ सुस्ताने की चाह ....

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  4. सुन्दर रचना , अंग्रेज कवि फ्रास्ट की एक कविता की याद दिला गया ..कभी सुनाउगां !

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  5. बड़के भैया नहीं सुनाए,मैं सुना देता हूँ। रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का यह मेरा अनुवाद:

    "गहन एकांत वन तिमिर शांत
    परंतु प्रतिज्ञाएँ पड़ी उद्भ्रांत
    और मीलों जाना पूर्व इसके कि होऊँ शांत
    मीलों है जाना पूर्व इसके कि होऊँ शांत।"

    ये भेंड़े कुछ अधिक ही ऊर्ध्व चढ़ाई कर रही हैं। वाकई ऐसा है या डिजिटल कलाकारी ?

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  6. हम चलते ही रहते हैं,
    घर, कभी नहीं आता,
    शायद 'प्रगति' इसे ही कहते हैं...

    -बहुत सही कहा...ऐसा ही है!!

    शानदार रचना!

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  7. प्रगति की परिभाषा अच्छी लगी .....!!

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  8. गिरिजेश जी ,
    बहुत अच्छी कविता पढ़वा दी आपने..
    अजी आपका अनुवाद क्या कहें ...एकदम लाजवाब...
    The woods are lovely, dark and deep,
    But I have promises to keep,
    And miles to go before I sleep,
    And miles to go before I sleep.
    और ये भेंड़े सही में ऊर्ध्व चढ़ाई ही चढ़ रही है.....डिजिटल का कमाल नहीं है..

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  9. "निरंतर....
    हम चलते ही रहते हैं,"


    चलना ही जिंदगी है ...

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  10. bahut badhiya .....chalte rhena hi zindagi ka naam hai

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  11. अच्छा लगा प्रगति की व्याख्यान , बहुत खुब ।

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  12. बिना रुके लगातार,

    निरंतर....


    हम चलते ही रहते हैं,


    घर, कभी नहीं आता,


    शायद 'प्रगति' इसे ही कहते हैं

    सुन्दर रचना अदा जी,

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  13. Bahut sunder rachana aur ye hee hai aaj ka jeevan darshan peeche na rah jane kee chah kadam thamne nahee detee.

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  14. बिना रुके लगातार,
    निरंतर....
    हम चलते ही रहते हैं,
    घर, कभी नहीं आता,
    शायद 'प्रगति' इसे ही कहते हैं


    जीवन की सच्चाई है
    बेहतरीन कविता
    बधाई आपको

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  15. SAHI MEIN KAI BAAR PATAA HI NAHI CHALTAA KE HAM KITNAA CHAL CHUKE HAIN....??

    KHUD BHI MANZIL KAA DHYAAN NAHI HOTAA AKSAR....

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  16. होगी पुरानी आपके लिये, हमारे लिये तो एकदम नई है. बहुत सुन्दर.

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  17. बहुत सुंदर रचना, ऊपर वाले चित्र को देख कर थोडी हेरानगी हुयी, इतनी खडी चढाई... मै तो देख कर ही डर गया,यहां तो ब्रेक भी काम ना करे,

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  18. जीवन चलने का नाम ,चलते रहो सुबह ओ शाम बढ़िया रचना....

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  19. हम चलते ही रहते हैं,

    घर, कभी नहीं आता,

    शायद 'प्रगति' इसे ही कहते हैं
    Padhte samay hi ek ajeeb thakan mahsoos huee..
    Chitr bhi behad sundar hain!

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  20. sach aager prugati ruk jate ya vishram late to aadimanav se.....manav chand par nahi pahuchta.prugati ka sunder kavya
    ullekh!

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  21. sach aager prugati ruk jate ya vishram late to aadimanav se.....manav chand par nahi pahuchta.prugati ka sunder kavya
    ullekh!

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  22. sach aager prugati ruk jate ya vishram late to aadimanav se.....manav chand par nahi pahuchta.prugati ka sunder kavya
    ullekh!

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  23. ... प्रभावशाली रचना तथा सुन्दर चित्र !!!

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  24. 'अदा' साहिबा आदाब
    क्या खूब शब्दजाल बुना है आपने..
    भागदौड़ भरी इस ज़िन्दगी में
    शायद कुछ लोग इसी को प्रगति कहते हैं
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  25. आपकी पोस्ट पढ़कर तो आनन्द आ गया!
    इसे चर्चा मंच में भी स्थान मिला है!
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/01/blog-post_28.html

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  26. बहुत सटीक व्याख्या है. सशक्त कविता है "प्रगति".

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  27. आप ऐसे ही अपनी पुरानी कविताओं को लिखते रहिये, नवीनता का आग्रह सदैव ही है उनमें !
    इस बहाने धुरंधर कविता सुनाने आयेंगे, सुनाते-सुनाते रह भी जायेंगे ।
    फिर मन न मानेगा तो सानुवाद सुना जायेंगे !
    आभार ।

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  28. हम चलते ही रहते हैं,


    घर, कभी नहीं आता,


    शायद 'प्रगति' इसे ही कहते हैं

    सुन्दर रचना अदा जी,

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